स्वयं
से विरह,
खुद को तलाशता
हज़ारो मंदाकिनियों
को टटोलता हुआ,
आवृत्ति करता
रहता अचेतन मन।
चेतना शून्य
शिथिल ध्वनि तरंगो
की तीव्रता धूमिल,
ख़्वाहिशों
के अवसादों
से टकराकर,
पुनः कोई
आकृति
कुरेदता रहता।
– खामोशियाँ -२०१७
स्वयं
से विरह,
खुद को तलाशता
हज़ारो मंदाकिनियों
को टटोलता हुआ,
आवृत्ति करता
रहता अचेतन मन।
चेतना शून्य
शिथिल ध्वनि तरंगो
की तीव्रता धूमिल,
ख़्वाहिशों
के अवसादों
से टकराकर,
पुनः कोई
आकृति
कुरेदता रहता।
– खामोशियाँ -२०१७
जो पास नही था अब आसपास कहीं,
पल से पलकों में समा जाता है कहीं।
दूरियां ठहरी उतनी बड़ी पर कहने को,
दिल की दवातों से लिखा जाता है कहीं।
दुवाएं अक्सर ढूंढती दो रूहों की कोटरें,
रात की अज़ानों में सुना जाता है कहीं।
मिटता नहीं वजूद किसी शख्शियत का,
राख के ठिकानों से बुना जाता है कहीं।
– खामोशियाँ -२०१७
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