प्रेम में इश्तेहार बन बैठे हैं हम,
भोर के अखबार बन बैठे है हम।
सब पढ़ते चाय की चुस्की लेकर,
हसरतों के औज़ार बन बैठे हैं हम।
कितनी सुर्खियां जलकर ख़ाक हुई,
सोच कर यलगार बन बैठे है हम।
बदल जाता मुसाफिर हर सफर में,
काठ के पतवार बन बैठे हैं हम।
– खामोशियाँ
(17-दिसंबर-2016)
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