
कुछ जरूरतें तेरी तो कुछ हमारी है,
इन बातों में उलझी दुनिया सारी है।
मोहब्बत की मुखबिरी कौन करता,
पूरा शहर ही इस खेल का मदारी है।
हर शख्स किसी मीठी जेल में होता,
खाकर सबने अपनी सेहत बिगाड़ी है।
चेहरे की मुस्कान उनको पचती कहाँ,
दुख बाटना ही जिनकी दुकानदारी है।
फेट रहा हूँ पत्ते लौटाने सबकुछ आज,
तेरी उम्मीद ही तेरी असल बीमारी है।
©खामोशियाँ – 2018 | मिश्रा राहुल
(26 – जुलाई -2018)(डायरी के पन्नो से)
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