
अल्फाज़ फाड़कर सिलते क्यूं हो,
रोज थोड़ा थोड़ा लिखते क्यूं हो।
काठ के दराज़ ऐसे गुफ्तगू करते,
पुरानी वसीयत में मिलते क्यूं हो।
मतला कहो फिर ग़ज़ल सुनाओ,
रदीफ़ काफियों से जलते क्यों हो।
शहरी खिड़कियाँ हैं चमकते रहती,
इतना भी आंखों को मलते क्यूं हो।
तारो से गुजारिश करो मान जाएंगे,
जुगनुओं से इतना लड़ते क्यों हो।
ज़िन्दगी है अपनी कारवां है अपना,
हर पल तुम इतना चलते क्यों हो।
©खामोशियाँ-2019 | मिश्रा राहुल
(01-अप्रैल-2019) | (डायरी के पन्नो से)