स्वयं
से विरह,
खुद को तलाशता
हज़ारो मंदाकिनियों
को टटोलता हुआ,
आवृत्ति करता
रहता अचेतन मन।
चेतना शून्य
शिथिल ध्वनि तरंगो
की तीव्रता धूमिल,
ख़्वाहिशों
के अवसादों
से टकराकर,
पुनः कोई
आकृति
कुरेदता रहता।
– खामोशियाँ -२०१७
स्वयं
से विरह,
खुद को तलाशता
हज़ारो मंदाकिनियों
को टटोलता हुआ,
आवृत्ति करता
रहता अचेतन मन।
चेतना शून्य
शिथिल ध्वनि तरंगो
की तीव्रता धूमिल,
ख़्वाहिशों
के अवसादों
से टकराकर,
पुनः कोई
आकृति
कुरेदता रहता।
– खामोशियाँ -२०१७
पुराने
कैलेंडर सी
खुद को
दोहराते जाती
है जिंदगी भी।
कुछ
तारीखों पे
लाल गोले,
यादों पर
बिंदी रखते।
कुछ गुम
हुए त्योहार
अपनी अलग
कहानियां सुनाते।
तारीखों
के इर्द गिर्द
सपने बुने जाते।
उन्ही सपनो
में पर लगाकर,
दूसरे कैलेंडर
तक पहुँच जाते।
खोती
कहां है
तारीखें।
चली आती
हर बार उसी
लिबास में,
खुद को
दोहराने
और यादों को
फिर से गाढ़ा करने।
पुराने
कैलेंडर सी
खुद को
दोहराते जाती
है जिंदगी भी।
– मिश्रा राहुल
(27-जून-2017)
तारीखें
तह करती
जाती है
लम्हें दर लम्हें।
उनके
टाइटल्स*
बकायदा टैग
होते है इमोशनल
बुकमार्क* के साथ।
जरा सी
गलतफहमियों
नें शफल*
कर डाले है
पूरे रंगीन बुकमार्क।
कितने
लम्हें लापता हो
गए उसी बीच,
पता मिलता ही
नहीं आज भी
उनका।
कभी बैठु
तो खंगालु
सारी फाइलों
के पीले पन्ने।
और
बना डालूं
यादों का
डिजिटल डैशबोर्ड*।
*Titles
*Bookmark
*Shuffle
*Dashboard
– राहुल ०१-जून-२०१७
मैं हूँ
खुद में कहीं,
खोया हूँ
खुद में कहीं।
बदलकर
भी देखा,
बहलकर
भी देखा।
खोजता हूँ
खुद को वहीं,
जहां छोड़ा था
तुझ को वहीं।
मैं में
मैं हूँ,
कि नहीं।
तुझ में
मैं हूँ
कि नहीं।
जानता
हूँ ऐसा,
ना जानकर
हूँ ऐसा।
चाहता हूँ
रहूं मैं खुद में।
खोज रहा हूँ
खुद को
खुद में ही कहीं।
– मिश्रा राहुल
(1-मई-2017)
दो
जुड़वे जोड़े,
बिलकुल
एक ही शक्ल के।
एक दूसरे
के इतने करीब
कि फर्क ही
ना बता पाए कोई।
दोनों
के बीच
जमी रहती
ताउम्र
प्रेम की
मीठी क्रीम।
देखा होगा
आपने कई रोज
ऐसा
प्रेम का क्रीम बिस्कुट।
_______________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
हर शब
कई ख्वाब टूटते।
हर पल
यादों की इमारत ढहती।
उम्र भर की कमाई,
एक ही
पल में बिखर जाती।
दबे रहते
मलबे तले
लाखों एहसास।
तड़प कर
दम तोड़ते,
जाने कितनी
फरियादें।
ऐसे तो
हर रोज ही
आता है
उम्मीदों का भूकंप।
अकसर
दिल के
मुंड़ेर पर बैठती,
एक प्यारी सी गौंरैया।
चुन-चुनकर
चोंच से लम्हे,
बनाया करती।
छोटे-छोटे
ख्वाबों का घोसला।
खुशियों
को इर्द-गिर्द
बसाए निहारती।
पर अचानक
आ गया
गमों का तूफान।
बस
बिखर गया
उम्मीदों से सजाया
ख्वाहिशों का घोसला।
दिल
की गौरैया भी
गिर पड़ी
सूखी सतह पर।
तड़प रही
उसकी
आँखों के आगे।
उड़कर
जा रहे
यादों के फटे पुर्जे।
सुबह
सारे तिनके
इकट्ठा थे।
हवाओं ने
इतना कर दिया।
गौरैया
खिल पड़ी,
देखते ही देखते।
फिर बन गया
ख्वाबों का घोसला।
_____________
ख्वाबों का घोसला
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
दिन मुंह
चिढ़ाता रहता,
पूछता कैसे हो
आजकल तुम।
मैं भी
चुप सा रहता
कुछ
देर बाद कहता।
जैसा
छोड़ गया था
एक अरसे पहले
बस वैसे ही हूँ।
बस थोड़ा
घमंडी हो गया था।
बस थोड़ा
गुस्सैल हो गया था।
अब
धरा-तल पे हूँ।
नहीं उड़ना ऊंचा।
नहीं हँसना
गला फाड़कर।
अब
शांत सा है,
सब कुछ तो।
अब
शिथिल सा है
अरमान अपना।
सब खुश
पर मन में हलचल।
थोड़ा
निर्जीव सा
हो गया हूँ
बाकी
ए ज़िंदगी
सब ठीक है।
__________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (१३-मार्च-२०१५)
Recent Comments