दिल भी अब कहाँ खामोश बैठता है,
वक़्त की शाखों पर बेहोश बैठता है।
धड़कता रहता है सीने में हर पहर,
पूछ उससे कितना मदहोश बैठता है।
खोते है लफ्ज गहराइयों में किसी के,
रोज़ तभी लेकर शब्दकोश बैठता है।
दलीलें चलती हर रोज़ मुकदमे की,
मुकद्दर लिए रोज़ निर्दोष बैठता है।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०३-अक्तूबर-२०१४)
badhiya