अकसर
कूंची मुँह में
दबा दबाकर।
कैनवस
भरती है
बेचारी जिंदगी।
सारे
ख्याल रंगों की
प्याली में घोलकर।
ब्रश
डोलाती जाती
उसे पता न होता
कब उसने क्या उकेरा।
फिर
शान बढ़ाती है
किसी अमीरज़ादे
के ड्राइंग रूम की।
आखिर
खरीदा है जो
उसने एहसासों भरी
ख्वाबों की हमारी पेंटिंग ।
कॉपीराइट © खामोशियाँ – २०१४ – मिश्रा राहुल
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