कभी
आ ज़िंदगी
एखट-दुक्खट खेलें।
खांचे खींचे,
पहला पूरा,
दूसरा आधे
पर कटा हुआ।
आता है ना??
तुझे पूरा
खांचा खींचना।
गोटी फेंकें
बढ़ाएँ चाल।
चल जीतें
घर बनाए ।
अपने
घर में
आराम से रुकें
सुकून पाए।
फिर
जल्दी निकल दूसरे
के पाले फांग जाए।
कभी
आ ज़िंदगी फिर से
एखट-दुक्खट खेलें।
©खामोशियाँ-२०१४॥ मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (०४-जनवरी-२०१५)
जिंदगी तो अक्सर खेलती है ये खेल … चुपके चुपके …