ज़िंदगी
फूटबाल ठहरी…
पाले
बदल-बदलकर….
घिसटती रहती….!!
मंज़िल
के पास
पहुँचते ही,
एक जोर
का झटका
फिरसे पाले में
लाकर
खड़ा कर देता…!!
चलो
खुदा न खासते
मंज़िल
मिल भी जाए…
तो भी क्या…???
फिर
से वही
खेल खेलना
फिर से बीच में
परोसा जाना…!!!
मेरा कभी
एक शागिर्द
ना होता
होते ढेरों सारे…!!
मुझे मारकर
खुश होते
जश्न मनाते….!!!
मैं भी
खुश होता
उन्हे देखकर…!!
फिर किसी
अंधेरी कोठरी में
बैठा इंतज़ार करता
कोई आए
मुझे मारकर
खुद को सुकून पहुंचाए….!!!
ज़िंदगी
फूटबाल ठहरी…
पाले
बदल-बदलकर….
घिसटती रहती….!!
©खामोशियाँ – २०१४ // २८-दिसम्बर-२०१४