इंसान जलती
भट्टी होता।
लोग सेंकते
अपनी रोटी,
बारी बारी से।
कभी किसी की
रोटी जलती,
तो कभी
किसी का हाथ।
फिर भी बड़े
प्रेम से खिलाता,
दिन का निवाला।
खाकर फिर
प्यार से देखते,
रोती भट्टी
राख़ रहती तबतक।
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल
(३०-जुलाई-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
सुंदर प्रस्तुति…
दिनांक 31/07/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है…
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है…
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें…
सादर…
कुलदीप ठाकुर
बहुत बढ़िया
बहुत सुन्दर विम्ब
क्या बात है, बढ़िया
बेहतरीन …