इश्क़ में हदें जब से बनने लगी,
दिलों में सरहदें भी बनने लगी।
घायल हुए कई कबूतरों के जोड़े,
यादों की खपड़ैल भी टूटने लगी।
सँजोये रखा था बहुत कुछ हमने,
ख्वाबों की चाभी भी रूठने लगी।
कुछ माँझे सुलझते नहीं हैं कभी,
डोर पतंगों की भी छूटने लगी।
मिश्रा राहुल | खामोशियाँ
(26-जुलाई-2015)(डायरी के पन्नो से)
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"कुछ माँझे सुलझते नहीं है कभी…"
So true!
हाँ अनुपमा जी कुछ माँझे नहीं सुलझते।
धन्यवाद ब्लॉग पर पधारने के लिए।