प्रेम में इश्तेहार बन बैठे हैं हम,
भोर के अखबार बन बैठे है हम।
सब पढ़ते चाय की चुस्की लेकर,
हसरतों के औज़ार बन बैठे हैं हम।
कितनी सुर्खियां जलकर ख़ाक हुई,
सोच कर यलगार बन बैठे है हम।
बदल जाता मुसाफिर हर सफर में,
काठ के पतवार बन बैठे हैं हम।
– खामोशियाँ
(17-दिसंबर-2016)
काठ के पतवार…वाह!
दिनांक 19/12/2017 को…
आप की रचना का लिंक होगा…
पांच लिंकों का आनंद पर…
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं…
ग़ज़ब … हर शेर बहुत तीखे कमाल के बिम्ब संजोये हैं ..
मज़ा आ गया
सुन्दर
वाह!!बहुत खूब।
बहुत सुन्दर….
वाह!!!
बहुत सुंदर।
बहुत सुन्दर