आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
अंजान बस्तियों
में घूम-घूमकर
वीरान कसतियों
में झूम-झूमकर।
दर्द की
साखों से मस्तियाँ निकाले।
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
ख्वाब कौन देखता
कौन देखेगा।
जवाब कौन ढूँढता
कौन ढूंढेगा।
गलियों के
सन्नाटों से परछाइयाँ निकाले।
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
हमदम हरकदम
साथ चलता रहेगा,
जानम जानेमन
याद करता रहेगा।
टूट कर
इरादों से तनहाईयाँ निकाले।
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
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जेबों से खुशियाँ निकाले – मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१४ (२९-दिसम्बर-२०१४)
वाह..सलाम इस ज़ज्बे को…बहुत प्रभावी रचना…