रात तकिये नीचे सेलफोन में उँगलियाँ स्क्रॉल करते कब सो गया पता नहीं चला। आजकल बहुत नीचे चले गए हैं कुछ फोटोग्राफ्स, जो कभी मोबाइल की पहली ग्रिड में अपना सीना तानकर खड़े रहते थे।
सपने सच बोलते वहाँ ज़ोर कहाँ चलता किसी का। कल आई थी चुप-चाप थी गुमसुम थी उलझी थी बिखरी थी लटें। ज़ुल्फों को उँगलियों से कंघा भी किया उसने देखकर मुस्कुराया। बोला नहीं सुना है सपनों में बोला नहीं करते शोर से टूट जाता बहुत कुछ। कुछ पल के लिए ठहर गया था समा।
बस समझो मज़ा आ गया था।
– मिश्रा राहुल | खामोशियाँ-2016
(डायरी के पन्नो से) (24-02-2016)
आपने लिखा…
कुछ लोगों ने ही पढ़ा…
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें…
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 29/03/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 256 पर लिंक की गयी है…. आप भी आयेगा…. प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।