ज़िंदगी
मुक्ताहार होती
अपने उसके मोती….!!
जैसे जैसे
अपना दूर जाता…
हार हल्का होता जाता…!!!
अंततः बस
धागा रह जाता…!!!
बिना कीमत का…
बिना वजूद का….!!!
अकेला चुप-चाप…
गुम-सुम पड़ा
कहीं किसी कोने-अतरे…!!
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– मिश्रा राहुल
मुक्ताहार-(डायरी के पन्नो से)
©खामोशियाँ-२०१४//(०८-अगस्त-२०१४)