आज
पुरानी साँझ
फिर पास आई।
कभी
चुपके-चुपके
खूब चुगलियाँ
करती थी तेरी।
आज
हौले से
मेरे कानो में
कुछ बुदबुदाई।
सुनाई
ना दिया कुछ
हाँ सिसकियाँ कैद है।
कानो के इर्द-गिर्द
और थोड़े भीगे
एहसासों के खारे छींटे भी।
आज
पुरानी साँझ
फिर पास आई।
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पुरानी साँझ – मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ // (डायरी के पन्नो से)
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