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मौसम
ऋतू की कसमकस…!!
हमारे पुरानी डायरी पलटी तो देखा कुछ शब्द लिपटे थे … बंधे एक दूजे से .. याद नहीं कब किस समय लिखा था पर … फिर भी पढ़ लीजिये .. शायद अच्छा लगे..!!
ऋतू की बाते कुछ हमें भी जमने लगी ..
हम हटे वहा से की बर्फ पिघलने लगी ..!!
छलक जाते है अब इन मैकासों से पैमाने ..
कभी तो धुप थी अब बदरी होने लगी ..!!
कयास लगा रहे थे कि बारिश भी होने लगी ..
लो भीग गए हम अब क्या हवा बहने लगी ..!!
सूखे पत्ते जैसे सिकोड़ कर रख लिया..
कि फिर धूप सर तलक आने लगी..!!
इस कसमकस से उबरने लिए देख ..
अलाव जलाया था कि तूफ़ान बुझाने लगी ..!!
कुछ हद तक छुपाया अपनी हथेलियों से ..
कि अब्र अपनी अन्सको से भिगोने लगी ..!!
क्या हैं क्या ये ऋतू की फेर ए राहुल ..
कभी गर्मी थी वह पर अब सर्दी जकड़ने लगी ..!!
पुरानी बस्ती…!!!
मुसाफिर बने घुस गया पुरानी बस्ती में ..
अंश्कों को सैन्हारते पंहुचा मस्ती में ..!!
सुखाने बैठा जब भीगे रुमाल देख ..
यादें ही बैठी अलाव जलाए कस्ती में ..!!
फूँक मारा और जल उठे वादों के पुवरे ..
पर जल गया मैं फिर उन्ही परस्ती में ..!!
गलती थी कुछ तभी झेला हूँ अब तक ..
वरना कौन सजाता पैमाना इतनी सस्ती में ..!!
धो नहीं पा रहा था लिए ताउम्र उन्हें ..
तभी बंच आया ख्वाब उन्ही पुरानी बस्ती में ..!!
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