अच्छा विदाई की समय रोने को लेकर ऐसा क्या बवाल मचाया जा रहा। यहां तक की क्रैश कोर्स तक चलाया जा रहा कि विदाई के समय अगर आपके आंखों से आंसू नही आ रहे तो कैसे प्रबंध किया जाए।
कुछ विक्स, ग्लिसरीन तक के टिप्स दिए जा रहे। यहां तक की तमाम एक्टिंग क्लासेज भी चलाई जा रही। पर मुझे यह नही समझ आ रहा। इमोशन्स को उभरने दें खुद से, वास्तविक ज़िंदगी में भी आखिर बनावटीपन क्यों?
ट्रेडिशन क्या होता है? रिवाज़ क्या होता है? विदाई में रोना रिवाज़ है। नही रोया तो नए जमाने की लड़कियां।
हद है अजीब भी है, पर हो रहा है।
– मिश्रा राहुल | २६-मई-२०१७
( ब्लॉगिस्ट एवं लेखक )
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-05-2017) को
"इनकी किस्मत कौन सँवारे" (चर्चा अंक-2635)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
दिनांक 30/05/2017 को…
आप की रचना का लिंक होगा…
पांच लिंकों का आनंद पर…
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं…
आप की प्रतीक्षा रहेगी…
नया दौर है त नया ही होगा … पर लड़कियों का रोना ज़रूरी नहीं …
भावनाओं पर लग़ाम नहीं कसी जाती ,घोड़ों के सन्दर्भ में उचित प्रतीत होता है ,सुन्दर प्रस्तुति ,आभार। "एकलव्य"
परम्परा को ढोते समाज का सच कहती विचारणीय रचना। बधाई।