विरह
चेतनाशून्य मन…
कोलाहल है हरसू…!!
संवेदना धूमिल..
सामर्थ्य विस्थापित
मन करोड़ों
मंदाकिनियों में भ्रमण…!!
काल-चक्र में
फंसा अकेला मनुज,
जिद
टटोलता चलता…!!
विस्मृत होती
अनुभूतियों में
शाश्वत सत्य खोजता..!!
संचित
प्रारब्ध के
गुना-भाग
हिसाब में उलझा
स्वप्न और यथार्थ में
स्वतः स्पंदन करता रहता…!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १७-१२-२०१४
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