मोहरे सजे-धजे….
पाँव मे जूते पहने तैयार खड़े….
घोड़ा टूटे पैर….
ढाई-पग चलता….
ऊंट तिरछी….
आँखेँ मारता रहता….!!!
वज़ीर लक़वा खाए…
हथियार नहीं उठाता….
हाथी कान कटवाए…
घमंडी हो चुका अब….!!!
ज़िंदगी की विसात….
अब शतरंज से ज़्यादा उलझ गयी….!!!
©खामोशियाँ-२०१४
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
—
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (25-01-2014) को "क़दमों के निशां" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1503 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
—
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
—
शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ज़िंदगी की विसात….
अब शतरंज से ज़्यादा उलझ गयी….
सही बात।
सुन्दर रचना।