ज़िंदगी के किरने परोसती हैं रूसवाई मेरी….
कदमो के नीचे ऐसे तड़पती हैं परछाई मेरी….!!!
बढ़ते कदमो से भी कहाँ कम होते है फासले….
रात को सीने तक चढ़ती है तनहाई मेरी….!!!
खामियाँ तो बहुत दामन से लगाए बैठे हमने….
रूह से अब कहाँ लिपटती है अच्छाई मेरी…!!!
एक खौफ़ सा चलता रहता ताउम्र साथ मेरे….
चुपचाप रह कर भी डराती है गहराई मेरी….!!!
©खामोशियाँ-२०१४
ये सच मे ही ऐसा होता है।
सुंदर !
एक खौफ़ सा चलता रहता ताउम्र साथ मेरे
चुपचाप रह कर भी डराती है गहराई मेरी…
इस खौफ़ को खत्म करना ही तो जीवन का प्रयास रहना चाहिए …
बिल्कुल दिगम्बर साहब।
स्वागतम….हमारे ब्लॉग पर
संजय जी बिल्कुल।
बहुत खूब …..खूबसूरत नज़्म…..
अदिति जी स्वागतम….खामोशियाँ के पटल पर….!!
राहुल भाई हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
शब्दों की मुस्कुराहट पर ….दिल को छूते शब्द छाप छोड़ती गजलें ऐसी ही एक शख्सियत है
जी बिलकुल दिगंबर साहब तो जबर्दस्त प्रतिभा के धनी आदमी हैं…. !!!